Gurugram: कई लोग अपनी जिंदगी को खाने-पीने में, कमाने में, बच्चों को पालने में एवं ऐशो आराम में व्यर्थ गंवा देते हैं. ऐसे लोग अपनी जिंदगी से खिलवाड़ कर रहे हैं. चीरा-फाड़ी करने पर जब शरीर ही विकृत और कुरूप हो जाता है तो जिंदगी भी आनंद के स्रोतों से दूर अशांति-भय और दुःखों से कुरूपित हो जाती है.
उक्त विचार जैन संत आचार्य श्री 108 विवेक सागर महाराज ने सदर बाजार स्थित गुरूग्राम में प्रवचन करते हुए व्यक्त किए. उन्होंने कहा कि आज का आदमी अपना सारा जीवन अर्जित करने में गुजारता है, लेकिन त्याग की ओर उसका कोई ध्यान नहीं है. आदमी इन्द्रियों के माध्यम से विषयों में इतना लीन हो गया है कि वह त्याग की यात्रा को बहुत ही कठिन महसूस कर रहा है. यही कारण है कि आज के आदमी में सहनशीलता बहुत ही कम है. जरा-जरा सी बात पर मर्डर और आत्म हत्याएं हो जाती है. धार्मिक जीवन त्याग में लिप्त होता है, जिसमें सहनशीलता ज्यादा होती है और यह सहनशीलता ही जीवन शक्तियों के स्रोत पैरा करती है.
यदि हम कुछ भी त्याग करने को राजी न हो तो हमारा ज्ञान रंचमात्र भी विकसित नहीं होता जबकि हम महाज्ञानी हो सकते हैं. यदि हम कुछ त्याग करके जिए तो हमें कुछ ज्ञान होता है. ध्यान रहे त्याग ज्ञान के ऊपर की भूमिका है क्योंकि जिनसे हम तृप्त हो जाते हैं. इन्ही को त्याग सकते हैं और तृप्त तभी होते हैं, जब हमें वस्तु का वेदन व अनुभव हो जाता है. यदि हम बहुत कुछ त्याग करे और संत बनकर अध्यात्म की साधना करें तो हम ज्ञान को विकसित करते हुए बहुत कुछ पा लेते हैं, लेकिन जब हम सब कुछ त्याग करके जीवन जीते है तो हमें सर्वज्ञान यानि केवल ज्ञान प्राप्त हो जाता है. आचार्य सागर ने आगे कहा कि ज्ञान की वृद्धि और आचरण की वृद्धि ही जीवन की स्रजनता का परिचायक है. यदि हमारा आत्मिक ज्ञान घटता हुआ है तो हम अपने जीवन को सजर्न की ओर ले जा रहे हैं.