NEW DELHI: क्या हिन्दू होना हिंदुस्तान में कोई गुनाह है? इस सवाल का जवाब आप रेलवे की दो घटनाओं में तलाश सकते हैं.
दिल्ली-आगरा रेलवे रूट पर 22 जून को बल्लभगढ़, फरीदाबाद (हरियाणा) के खंदावली के रहने वाले जुनैद खान की कुछ लोगों ने सीट विवाद में हत्या कर दी थी.
आपको याद होगा जुनैद की मौत के बाद पूरे देश में हंगामा खड़ा हो गया था. सड़क से लेकर संसद तक हंगामा हुआ. सरकार को घेरा गया. भारतीय मीडिया से लेकर अंतर्राष्ट्रीय मीडिया तक में बहस छिड़ गई. विदेशी मीडिया खासतौर पर पाकिस्तानियों को हिंदुस्तान में मुसलमानों के हालात पर रोना रोने का बहाना मिल गया था.

जाति और मजहब के नाम पर सियासत करने वाले कुछ सियासतदानों से लेकर तमाम कथित बुद्धिजीवी हो हल्ला मचाये हुए थे. क्या मायावती, क्या राहुल गांधी, असदुद्दीन ओवैसी और लेफ्ट की पार्टियों सहित जेएनयू के कन्हैया कुमार ने भी इस मसले पर सीधे सरकार और हिन्दू संगठनों पर निशाना साधा था.
सियासी मजबूरी में बीजेपी के भी कुछ मंत्री और नेता जुनैद के घर गये. आंसू बहाए, मुआवजा और नौकरी भी दी गई.
अब इसी रेलवे रूट पर 12 अगस्त को दिल्ली-आगरा इंटरसिटी में सीट को लेकर हुए झगड़े में दो युवकों को नीचे फेंक दिया गया. इसमें से देवेन्द्र नामक एक युवक की जान चली गई.
ये घटना भी असावटी स्टेशन के आस-पास की ही है, जहां जुनैद खान को मार दिया गया था. दोनों घटनाएं एक ही तरह की हैं. लेकिन एक फर्क है जुनैद और देवेन्द्र होने का. फर्क है हिन्दू और मुसलमान होने का.

देवेन्द्र की मौत की कोई चर्चा न तो मीडिया में हुई और न ही संसद में. न तो उसके घर कोई नेता गया और न ही उसे सरकार ने जुनैद मामले की तरह मुआवजा दिया. देश ने भी इस मामले को जुनैद की तरह नहीं लिया. न कहीं देवेंद्र के लिए मोमबत्तियां जलीं और न ही किसी ने काली पट्टी बांधी… सच्ची पत्रकारिता का ढिंढोरा पीटने वाले बीबीसी ने तो तब लिख दिया था कि ‘जुनैद की हत्या भारत में हिन्दुओं के ‘सैन्यीकरण’ की पहली आहट है’. देवेन्द्र मामले पर उसने कोई स्पेशल रिपोर्ट बनाने या देवेन्द्र के परिवार वालों का दर्द लिखने की जहमत नहीं उठाई.

हम यह बिल्कुल नहीं कह रहे हैं कि जुनैद की मौत की त्रासदी उसके परिवार के लिए छोटी थी या उसके परिवार का दुख छोटा था. लेकिन क्या देवेन्द्र के परिवार की त्रासदी को सिर्फ इसलिए कम मान लिया जाये कि वह एक हिन्दू था. देवेन्द्र के बीबी बच्चों और माँ-बाप को जुनैद के परिवार वालों से कम कष्ट तो शायद नहीं हुआ होगा. देवेन्द्र अल्पसंख्यक होता तो उसके लिए क्या-क्या न हुआ होता.

लेकिन दुर्भाग्य ये है कि हमारा देश ऐसे दौर से गुजर रहा जिसमें लोगों की जिन्दगी और मौत की कीमत या तो सियासत तय करती है या मजहब. देवेन्द्र मामले पर सपा, बसपा और कांग्रेस के लोग कहां चले गए. जुनैद मामले पर रोने वाले कम्युनिस्ट कहां गये. हत्या तो हत्या है वो चाहे हिंदू की हो या मुसलमान की. तो फिर हमारी सरकारों और सियासतदानों को ऐसे मामलों को लेकर दोहरा चरित्र. दो तरह का रवैया क्यों सामने आ जाता है. ये जरुरी है कि मुस्लिमों को देश में उनका हक़ मिलना चाहिए और उनपे मजहब के नाम पर अत्याचार नहीं होना चाहिए, लेकिन सबसे बड़ा सवाल ये है कि हिंदुस्तान में क्या हिन्दू होना गुनाह है? जवाब आप खुद तलाश सकते हैं.