जानिए क्यों लगी है सूरजकुंड मेले में बिरसा मुण्डा की मूर्ति .. कौन थे वे …

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    सूरजकुंड फरीदाबादः बिरसा मुण्डा एक महान आदिवासी स्वतंत्रता सेनानी धार्मिक नेता और लोकनायक थे वे मुण्डा जनजाति से सम्बद्ध थे जो कि वर्तमान में झारखण्ड में है। उन्होंने भारतीय स्वदेशी आदिवासी सहस्राब्दि आन्दोलन का नेतृत्व किया। अब भी बिहार, झारखण्ड, उड़ीसा, छत्तीसगढ़ के आदिवासी उनको भगवान मानते है। उन्होंने आदिवासी समुदाय पर अंग्रेजो द्वारा किये जा रहे अत्याचार के खिलाफ आवाज उठाया और नायक बन गये। भारतीय स्वतन्त्रता आंदोलन में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।

    सूरजकुण्ड मेला में झारखण्ड पैवेलियन में इस समय बिरसा मुण्डा की 18 फुट ऊंची प्रतिमा स्थापित की गई है जिसका निर्माण प्रख्यात मूर्ति शिल्पी राम सुतार ने किया है ।

    वे एकमात्र जनजाति नेता है जिनका चित्र भारतीय संसद के सेन्ट्रल हाल में लगाया गया है जो काफी सम्मान जनक है। बिरसा मुंडा का जन्म 15 नवम्बर 1875 को रांची जिले के उलिहतु गाँव में हुआ था मुंडा रीति रिवाज के अनुसार उनका नाम बृहस्पतिवार के हिसाब से बिरसा रखा गया था, अब यह क्षेत्र झारखण्ड के कुथी जिले में है।

    बिरसा एक छोटे किसान परिवार में पैदा हुए थे। बिरसा मुण्डा एक आध्यात्मिक सोच के इंसान थे. उनकी परिकल्पना भगवान एक ही है पर आधारित थी जिसे वे अपने धर्म के लोगों को महान मरहम लगाने वाले के रूप में बताते थे।

    बिरसा मुण्डा ने जनजाति के लोगों को अपने वास्तविक पारम्परिक आदिवासी धार्मिक प्रथा को अपनाने पर जोर दिया। उनकी शिक्षा से प्रभावित होकर वे आदिवासियों के लिए एक पैगम्बर बन गए और लोग उनका आशिर्वाद चाहने लगे। उनकी मांग ब्रिटिस राज की खिलाफत करना था।

    (अबुआ राज स्टे जाना, महारानी राज टण्डू जाना)

    ब्रिटिस महारानी का राज्य समाप्त हो और हमारा साम्राज्य कायम हो)

    यह लोकोक्ति आज भी ओडिसा, बिहार, पष्चिम बंगाल और मध्य प्रदेष में याद की जाती हैं। ब्रिटिस औपनिवेषिक प्रणाली ने तेजी के साथ आदिवासी किसानों को एक सामन्ती राज्य के रूप में बदलने लगी। आदिवासी अपनी आदिम प्रौद्योगिकी के गैर आदिवासी लोगों के मुकाबले अधिक उपज नहीं  ले  पाते थे। इस कारण आदिवासी लोगों का भूमि से अलगाव होने लगा। इससे ठेकेदारों की एक नई श्रेणी का उद्भव हुआ जो कि अधिक लालची किस्म के थे और उन लोगों की जमीन को हड़पने का इरादा रखते थे।

    इन दोहरी चुनौतियों के कारण किसानों में विभाजन और सांस्कृतिक परिवर्तन होने लगा। बिरसा ने मुण्डाओं को साथ लेकर विद्रोहों की एक श्रृखला के माध्यम से इसका जवाब दिया और अपने नेतृत्व में बगावत का बिगुल बजा दिया।

    बिरसा का निधन भी रहस्यय में डूबा था। कुछ लोगों का तो यह भी कहना है कि उनकी गिरफ्तारी विष्वासघात के साथ 3 फरवरी 1900 को की गई और 9 जून 1900 को उनका निधन रांची कारवास रहस्यमय तरीके से हुआ। उनमें हैजा जैसे कोई लक्षण  नहीं पाए गए जबकि ब्रिटिस सरकार का कहना था कि उनकी मौत हैजे के कारण हुई। लेखक की कहानी के अनुसार उन्हें ब्रिटिस जेल में जहर देकर मारा गया था।

    उनकी मौत और तारीख का सही पता नहीं है। यह अविष्वास अभी तक कायम है कि उन्हें कोकर (रांची) के डिस्टलरी ब्रिज के पास जलाया गया या दफनाया गया। तथापि 1900 में इस प्रकार का कोई ब्रिज वहां मौजूद नहीं था।

    हालांकि वे 25 वर्ष के अल्प समय तक जीवित रहे, उन्होंने आदिवासियों की मानसिकता को बदला और उन्हें एक छोटे से कस्बे छोटा नागपुर में बसने को पे्ररित किया तथा जो कि ब्रिटिस षासकों के लिए एक भय बन चुका था। उस समय ब्रिटिस षासकों ने बिरसा मुण्डा का सिर काट कर लाने वाले को 500 रुपए पुरस्कार देने की घोषणा भी की थी।

    स्टेच्यू आॅफ उलगुलान बिरसा मुण्डा की 150 फुट ऊंची प्रतिमा झारखण्ड में स्थापित करने का प्रस्तावित है और इसकी 15 नवम्बर, 2018 तक पूरा होने की संभावना है और इसके लिए पत्थरों का संग्रह इस क्षेत्र के घरों से किया जाएगा।

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