कोरोना काल में व्यवस्था की मार झेलता श्रमिक वर्ग लगातार शहरों से मुंह मोड़कर गांवों की ओर पलायन कर रहा है. जहां उसके अपने हैं. जिन शहरों को उसने अपने पसीने से आलीशान बनाया उसमें रहने के लिए उन्हें जगह नहीं मिली. लेकिन इन मजदूरों का दिल शहरी लोगों जैसा छोटा नहीं है. वह हालात सामान्य होते ही फिर शहरों में आकर देश का निर्माण करने की इच्छा रखता है. वह इतनी बड़ी त्रासदी के बाद भी हारा नहीं है. जो 1500 किलोमीटर के लिए व्यवस्था का बोझ लिए पैदल चल सकता है वो कभी टूट नहीं सकता. ऐसे ही बहादुर लोगों की तरफ से पेश है शहर वालों के लिए उनका एक ख़त.

जिंदा रहे तो फिर से आयेंगे
तुम्हारे शहरों को आबाद करने
वहीं मिलेंगे गगन चुंबी इमारतों के नीचे
प्लास्टिक की तिरपाल से ढकी अपनी झुग्गियों में
चौराहों पर अपने औजारों के साथ
फैक्ट्रियों से निकलते काले धुंए जैसे
होटलों और ढाबों पर खाना बनाते, बर्तनो को धोते
हर गली हर नुक्कड़ पर फेरियों मे
रिक्शा खींचते आटो चलाते मंजिलों तक पहुंचाते
हर कहीं हम मिल जायेंगे
पानी पिलाते गन्ना पेरते
कपड़े धोते प्रेस करते
समोसा तलते पानीपूरी बेचते
ईंट भट्ठों पर
तेजाब से धोते जेवरात
पालिश करते स्टील के बर्तनों को
मुरादाबाद ब्रास के कारखानों से लेकर
फिरोजाबाद की चूड़ियों
पंजाब के खेतों से लेकर लोहामंडी गोबिंद गढ़
चायबगानों से लेकर जहाजरानी तक
मंडियों मे माल ढोते
हर जगह होंगे हम
बस इस बार
एक बार घर पहुंचा दो
घर पर बूढी मां है बाप है
सुनकर खबर वो परेशान हैं
बाट जोह रहे हैं काका काकी
मत रोको हमे जाने दो
आयेंगे फिर जिंदा रहे तो
नही तो अपनी मिट्टी मे समा जाने दो
(यह कविता हमें निर्माण मजदूर शक्ति संगठन के महासचिव एसए आजाद ने भेजी है. लेकिन इसे लिखा किसने है अभी तक इसकी जानकारी हमें नहीं मिल सकी है.)